कवियित्रियों ने पढ़ी दिल छू लेने वाली कविताएं


कश्मीर व धारा 370 विषय पर भी हुई चर्चा


बिंदास बोल @ जयपुर : समानान्तर साहित्य उत्सव के तीसरे दिन की खुशनुमा शुरुआत हुई । आधी आबादी : पूरी आज़ादी सत्र मे जहां कवियित्रियों "ऊषा राजे सक्सेना, रूपा सिंह, अनुपमा तिवाड़ी, रंजीता सिंह, आरती, प्रज्ञा बजाज, पूजा सिंह, पंखुड़ी सिन्हा और माधुरी" ने गर्मजोशी से कविता पाठ कर दर्शकों को बांधे रखा। 
 "औरत तू ठठाकर हंस कुछ यूं रही..
औरत का प्रेम करना, निर्लज्ज लगता है किसी को औरत का सवाल करना, हुकुमत के खिलाफ लगता है ना सब को लेकिन औरत तू चल अपनी चाल कि नदी भी बहने लगे तेरे साथ–साथ
तू ठठाकर हंस कि बच्चे भी खिलखिलाने लगे तेरे साथ–साथ" अनुपमा तिवाड़ी की ये कविता आकर्षण का केंद्र बनी । वही कवियित्री आरती की "औरतों के दुखों" पर लिखी कविता वे स्त्रियां किस देश की नागरिक हैं? ने
श्रोताओं को गहराई तक छू गईं । माधुरी ने अपनी मार्मक कविता "पेड़ मत काटो, प्लीज़" से कुदरत के प्रति परवाह पर कुछ यूं अपनी भावनाएं पिरोईं -
"जंगल तो रहें कि कभी मैं लिटिल रेड राइडिंग हुड की तरह वहाँ से गुजरूं, फूल चुनूं और कोई भेड़िया आ जाए। कभी लकड़हारे की तरह लकड़ी काटती होऊं और मेरी कुल्हाड़ी गिर जाए तालाब में, कोई वनदेवी आए, डुबकी लगाए पानी में मेरी ख़ातिर। 


राजस्थानी में महिला लेखन को लेकर आयोजित एक सत्र में महिला लेखकों ने अपने लेखकीय जीवन के कई पक्ष साझा किए। लेखिका सावित्री चौधरी ने ग्रामीण परिवेश की महिलाओं के लेखन में संघर्ष के कई क़िस्सों को साझा किया। वहीं वरिष्ठ लेखिका शारदा कृष्ण ने राजस्थानी महिलाओं के लेखन में मीरा के योगदान को याद करते हुए कहा कि मीरा के लेखन में केवल उनके निजी जीवन और दुख के साथ ही तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रतिरोध भी रहा है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि राजस्थान में महिला लेखकों का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन भाषायी मान्यताओं और सामाजिक रूढ़ियों के चलते यह इतना मुखर नहीं हो सका। सभी लेखिकाओं ने एक स्वर में राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर एक जुट होने की बात कही।कश्मीर की चुप्पी को समझना किसी के बस की बात नहीं: अशोक कुमार
कश्मीर अभी भी गुलज़ार हो सकता है। कश्मीर हिन्दू मुसलमान नहीं कश्मीर कश्मीर है और इसी दृष्टिकोण से हमें पूरे भारत को देखना पड़ेगा। कश्मीर से जुड़े सुलगते सवालों के बीच हुई इस बातचीत में डॉ संजय पारवा ने कश्मीर की हकीकत बयान की, वहीं दूसरी ओर पत्रकार सागरिका किस्सू ने कश्मीरी लोगों के दर्द को बयां किया। अशोक कुमार कहते हैं कि जब मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं कश्मीरी हूं तो मुझे अलगाव वादी घोषित कर दिया जाता है। कश्मीर की हकीकत के बारे में सागरिका कहती हैं कि अतिवाद दोनों तरफ से है और यह एक खतरनाक स्थिति है। जब एक जगह कर्फ्यू लगता है, तो वहां के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, लोग रोजमर्रा के काम नहीं कर पाते, तो लाज़िमी तौर पर लोगों का भगवान के प्रति रूझान बढ़ जाता है। अशोक कुमार बताते हैं कि किसी को आजादी चाहिये, किसी को मजा चाहिये और कश्मीर को बीच में खींच लिया जाता है। वे आगे कहते हैं कि कश्मीर का इतिहास पुराणों से भी पुराना है, वहां फुटबॉल जैसे अनेक खेल खेले जाते हैं, लेकिन उसकी खबर नहीं आती लेकिन कहीं एक गोली भी चल जाए, तो वह सबसे पहले ख़बर बन जाती है।
💥धारा 370 पर बातचीत के दौरान दर्शक दीर्घा में मौजूद संजय पारवा के पिता ने कहा कि मैंने अपनी पत्नी को खो दिया, और यह कहते–कहते उनके आंसू झलक आए। पारवा कहते हैं कि कश्मीर के विषय में आक्रमक होने से काम नहीं चलेगा। अशोक मानते हैं कि कश्मीर को आप तलवार से नहीं मोहब्बत से जीत सकते हैं। सरकार द्वारा कश्मीर में बस्ती के निर्माण पर पारवा कहते हैं कि मैं बस्ती का क्या करूंगा, मुझे तो अपना गाँव पसंद है। वे आगे बताते हैं कि इस बार कश्मीर ने बड़ी ही खामोशी से सब कुछ बरता है। आज हर जगह पॉलिटिकल पैरालिसिस हो रहा है। वहीं दूसरी ओर सागरिका बताती हैं कि जब तक वहां के स्थानीय लोगों से बात नहीं होगी, तब तक कोई समाधान नहीं निकल सकता। वहां का आम आदमी हिंसा नहीं चाहता। कश्मीर के 95% लोग अवसाद में हैं, और कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों को आपस में बात करनी पड़ेगी। जो होना है वो तो हो गया, अब आगे क्या हो सकता है, इस पर ध्यान देना जरूरी है।कश्मीर पर अपने विचार रखते हुए अशोक कहते हैं कि जब कश्मीरी बोल रहा है, तो उसे सुनना जरूरी है, और वहां के लोगों ने दर्द वाकई झेला है। कश्मीर की चुप्पी को समझना किसी के बस की बात नहीं है।


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