✍मनीष पारीक की कलम से
बिंदास बोल @ कविता
मन से मन का मेल मिलन जाने क्यों अच्छा लगता है
नेह प्रेम से स्नेह सिक्त हूँ ऐसा क्यों मुझको लगता है।।
ज्ञान चक्षु में प्यास भरी है मन निर्लिप्त पंछी उड़ता है
चंदन महके रोम रोम में हर पल डूबा ऐसा लगता है।।
बेकल विकल जीव ने ज्यों नरम बिछौना ओढ़ लिया
उचित अनुचित न सोचे मन से नेह बरसन लगता है।।
बिना तत्क्षण सोच विचारे स्नेहसिक्त हो डूब लिया
एक अकेला नही होना है साथ प्रेम होता लगता है।।
जो न रुचे तो भय लगता है कभी किसी का मन न दुखे
छिपे हुए जो शब्द रहे ना अब छिपना अच्छा लगता है।।
झर झर पुष्प झरे वाणी से अवलोकन अच्छा लगता है
पाऊंगा क्या पता प्रेम कब किन्तु देना अच्छा लगता है।।
ये वाणी का आवेश नही है नेह भरा हो गया हूँ मैं
बहुत प्रेम भीगे तन मन प्रतिदिन जीना अच्छा लगता है।।
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